पेशे खिदमत है .....
इरशाद ....
इज़हार-ए-महोब्बत कैसे करूं, वो मेरे बस की बात नहीं |
इन्कार-ए-महोब्बत जो हो गई, तो जीने की कोई आस नहीं ||
जब से देखा है वो चहेरा, वक़्त है जैसे थम सा गया !
उसे देखा करूं हर शाम सहर, उसके सीवा अब कोई काम नहीं ||
जब याद उसकी आ जाती है, बेबाक से हो जाते हैं हम |
ढूँढते रहेते हैं खुदको हरदम, अब उसके सीवा कोई पहेचान नहीं ||
कभी-कभी ज़हेन में आता है ख़याल, के कहेदु जाकर दिल की बात |
पर जाने क्यूँ रुक जाता हूँ, वरना 'ना' वो कहें ऐसे तो हालात नहीं ||
क्या होगा इस मसले का हल, कौन करेगा पहेली पहेल |
इसही उलझन में उलझा रहेता हूँ, वरना हल न हो एसा ये सवाल नहीं ||
आखिर आ ही गई क़यामत की रात, और हो ही गया इजहार-ऐ-गज़ब |
आखों ही आखों में गुफ्तगू हो गई, अब लब्जों का कोई इस्तेमाल नहीं ||
ये न पूछो क्या मंज़र था क्या समां था क्या आरजू थी 'जांबाज़' |
कुछ न कहे पाएंगे क्योंकि, अल्फजों में बयां हो सके एसा ये अहेसास नहीं ||
सोहम 'जांबाज़'- १२ - फरवरी - २००८
- लंदन -